
जब किसी व्यक्ति की पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज नहीं की जाती है, तो वह फिर न्यायालय में मजिस्ट्रेट के यहां सीआरपीसी की धारा 156(3) (जो अब बीएनएसएस की धारा 175(3) में) के तहत एक आवेदन करता है एफआईआर दर्ज करने के लिए तब मजिस्ट्रेट उस आवेदन पर या तो एफआईआर दर्ज करने का निर्देश देता है और पुलिस को अन्वेषण करने का निर्देश देता है और उस पर पुलिस रिपोर्ट प्राप्त करता है या तो मजिस्ट्रेट स्वत: संज्ञान लेने के पश्चात परिवादी और साक्षियों के बयान लेने के पश्चात जांच के परिणामस्वरूप यह समाधान नहीं होता है की कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार है तो वह परिवाद को निरस्त कर सकता है, और यदि यह समाधान हो जाता है कि कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार है तो मजिस्ट्रेट अभियुक्त के खिलाफ आदेशिका जारी कर सकता है , लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब मजिस्ट्रेट के पास आवेदन आता है तो मजिस्ट्रेट को प्रथम दृष्टया यह देखना चाहिए कि क्या यह आवेदन किसी द्वेषपूर्ण आशय से तो नहीं किया गया है
क्या यह आवेदन किसी बदले की भावना से तो प्रेरित नहीं है या यह आवेदन किसी सिविल विवाद से तो जुड़ा नहीं है या वाणिजीयिक विवाद या किसी समझौते के विवाद से तो नहीं जुड़ा है इस तथ्य पर शिकायतकर्ता से शपथ पत्र पर रिकॉर्ड मांग लेना चाहिए इस बात पर गंभीरतापूर्वक विचार कर तभी मजिस्ट्रेट को आगे बढ़ना चाहिए। न कि मजिस्ट्रेट डाकघर की तरह काम करने लगे, आवेदन के सम्पूर्ण सामग्री पर विचार करने के पश्चात ही एफआईआर दर्ज करने का निर्देश देना चाहिए ।